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शब्दों का गुलदस्ता

शब्दों का गुलदस्ता 
कम शब्दों में अधिक भावनायें…..जो पढ़ने वाले के मन को छू जायें!!

(1)
दिल के ज़ज़्बातों को समेट कर,
अक्सर नज़्मों में ढाल देती हूँ,
कुछ अजीब सी है फितरत मेरी,
जवाबों के बदले मैं सवाल देती हूँ।
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(2)
तुम्हारा होने के लिए,
तुम्हारा होना ज़रूरी नहीं,
अब तो प्रीत बनकर,
तुम रगो में बहने लगे हो मेरी।
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(3)
आखिर मिलने के लिए,
मिलना ही, जरूरी तो नहीं,
मेरे शब्दों में, एहसासों में,
बस तुम ही, तुम तो हो।
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(4)
मेरे नैनों की भाषा,
तुम कभी पढ़कर तो देखो,
तुम्हारे प्रश्नों के शब्द,
खत्म हो जायें शायद।
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(5)
उसकी तो ‘न’ में भी,
‘हाँ’ जैसा विश्वास होता है,
उससे हारकर भी, मुझे-
जीत सा एहसास होता है।
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(6)
उसकी एक नज़र ही काफ़ी थी,
मेरे दिल की हलचलें बढ़ाने को,
उसमें ज़िन्दगी सँवार लेने को,
या फिर टूटकर बिखर जाने को।
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(7)
मोहब्बत की ये परिभाषा,
कुछ जानी-पहचानी सी है,
शायद मज़बूर हो जाना,
मोहब्बत की निशानी सी है।
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(8)
उसकी आँखों में आज भी,
सवाल बेसुमार थे,
जवाब तो थे मेरे पास,
पर देने का हक न था।
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(9)
बेइंतिहा मोहब्बत तो,
एहसासों भरी खाई है,
कहीं सिमटते फासलें हैं,
तो कहीं बढ़ती जुदाई है।
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(10)
खाली लिफाफों में भी,
कुछ एहसास समाये होते हैं,
उसमें भी तो किसी ने,
अनकहे जज़्बात छिपाये होते हैं।
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(11)
लबों को सी सकते हैं,
आँखों को झुका सकते हैं, पर-
बेइंतिहां परवाह करना भी,
बहुत कुछ कह जाता है कभी-कभी।
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—(Copyright@भावना मौर्या “तरंगिणी”)—

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