मनोरंजनकवितायें और कहानियाँ

मिटटी के घरौंदें

कभी कुछ मिटटी के घरौंदें,
मैं भी बनाया करती थी,
उसे सुनहरे और इंद्रधनुषी,
रंगो से सजाया करती थी;
बहुत सोंधी सी महक से,
महकता था वो गुलशन मेरा,
जिसमें एक-एक सदस्य को,
मैं प्रेम से बसाया करती थी;
निश्छल से रिश्तों से सजता था,
मेरा बसेरा, वो मिटटी का,
उससे अपने लगाव को, मैं
लौह से भी मजबूत पाया करती थी;
उस छोटे से घरौंदें में,
बने मिटटी के बिछौने पर,
अपनी गुड़िया के परिवार की,
मैं महफ़िल सजाया करती थी,
उनके संग खाती थी, बनाती थी,
जाने कितना बतियाया करती थी;
न जिम्मेदारियों की उलझन थी.,
न कुछ खोने का भय था,
मेरे उस घरौंदें में मैं जब-तब,
बेरोक-टोक आया-जाया करती थी,
न बुराई का डर था और
न ही लड़ाई की कोई चिंता थी,
उस बचपन की दुनिया में,
मैं खुलकर मुस्कुराया करती थी।

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—(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी”)—

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