मनोरंजनकवितायें और कहानियाँ

न ढूँढ मुझे तू पत्थर में

न ढूँढ मुझे तू पत्थर में,
बसा हूँ मैं, तेरे ही अन्तर्मन में।

न सत्संग में, न कीर्तन में;
मैं तो हूँ हर जीव की धड़कन में।

न मन्दिर में, न मस्जिद में;
मैं हूँ तेरे कुछ पाने की जिद में।

न चर्च में, न गुरुद्वारे में;
मै तो हूँ किसी निर्बल को दिये सहारे में।

हर रंग में, हर रूप में;
मैं तो हूँ हर छाँव और धूप में।

हर साज में, हर राग में;
मैं हूँ हर सत्य की आवाज में।

तेरे सपने में, अपनेपन में;
मैं तो हूँ हर शिशु के बचपन में।

मैं हूँ धरती में, मैं हूँ अम्बर में;
मैं हूँ बहती नदियों की कलकल में।

मैं हूँ पक्षियों की चहचहाहट में,
मैं हूँ हर जीव की मुस्कुराहट में।

न दोष हूँ मैं, न भेद हूँ मैं;
दुर्जनों के लिए अभेद्य हूँ मैं।

हर गद्य में मैं, हर काव्य में मैं;
रचनाकार के हर भाव में मैं।

तेरी चेतना में, तेरी नींद में,
मैं हूँ प्रायश्चित में गिरे, अश्रुओं की हर बूंद में।

मैं हूँ प्यासों को जल अर्पण में,
मैं हूँ भूखों को भोजन तर्पण में।

मैं हूँ कर्तव्य के प्रति समर्पण में,
दूसरों को जीवन अर्पण में।

न ढूँढ मुझे तू पत्थर में,
मैं हूँ प्रेम के हर एक अक्षर में।

क्यों भटके तू जग-जीवन में,
मुझे पा ले झाँक के दर्पण में।

—(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी”)—

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