मेरे शब्द खोने लगते हैं

मेरे शब्द खोने लगते हैं

जब सोचती हूँ कुछ शब्द दूँ –
तुम संग मेरे साथ को,
जो करती हूँ मैं तुम पर,
उस अटूट विश्वास को;

जो बातें तूने की हैं मुझसे,
निश्छल सी-बेबाक सी,
सोचती हूँ कि मैं कैसे लिखूँ,
उन अनमोल से अल्फ़ाज़ को;

जो महसूस किये मैंने तेरे लिए,
उस अप्रतिम-अनुपम एहसास को,
जो तेरी आँखों में हैं दृश्य मुझे,
कैसे लफ्ज़ दूँ उन जज़्बात को;

कैसे शब्दांकित कर पाउंगीं मैं,
तेरी धड़कनों के स्पंदन को,
कैसे वर्णित कर सकती हूँ मैं,
तेरी सम्मोहित हुई श्वास को;

ऐसे अनकहे से भावों का,
विशाल सागर है मेरे मन में,
पर मुश्किल है निरूपित करना,
शब्दों में हर जज़्बात को।
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—(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी”)—

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