मेरी हर कविता में

मेरी हर कविता में, ओ जानम,
मन के भावों में कर संगम,
मुझे खुद में डुबो कर तुम,
हमेशा आ ही जाते हो;
लिखना जब भी चाहूँ मैं,
प्रेम से इतर ज़रा कुछ भी,
तभी उतरकर ख्यालों में,
तुम, मन बहका ही जाते हो;
है फूलों सी तेरी कुर्बत,
है खुशबू की मुझे चाहत,
कभी छू के, कभी बह के,
तुम मुझे, महका ही जाते हो;
लिये चन्दन सी ये फितरत,
मेरे तपते हुए मन में,
अपने सम्मोहित स्मित से,
तुम सौम्यता ला ही जाते हो;
छिपूँ मैं लाख पर्दों में,
या रहूँ तेरी नज़रों से ओझल,
फिर भी जाने कैसे, तुम मुझ पर,
अभ्र सा छा ही जाते हो;
मेरे बेरंग से जीवन में,
तुम इंद्रधनुष बनके उभरे हो,
अपने तिलिस्मी रंगो से,
तुम, मुझे चमका ही जाते हो;
तुम सागर से खुले मन के,
मैं सरिता सी हूँ बंधन में,
पर मुझे लेकर पनाहों में,
तुम हर बंधन को, गिरा ही जाते हो;
मेरी उलझनें भी, कुछ कम न हैं,
तेरे जितने सुलझे भी, हम न हैं,
पर मुझे ले करके अपनी सोहबत में,
मेरी हर उलझन को, तुम सुलझा ही जाते हो;
शब्द चाहे हो कितने ही कम,
पर जब करना हो तेरा वर्णन,
तो मेरी नज़्मों में ओ जानम,
तुम उपमा पा ही जाते हो;
मेरी हर कविता में ओ जानम,
तुम हमेशा आ ही जाते हो।
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—–(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी”)—-
(*इतर=अलग हटकर, कुर्बत=सामीप्य, स्मित=मुस्कराता हुआ, सौम्यता=शीतलता, अभ्र=बादल, तिलिस्मी=जादुई, सरिता=नदी, सोहबत=संगत, उपमा=तुलना/ विशेषण)