जानिये सेंगोल (राजदंड) का वो इतिहास जो शायद नहीं जानते हैं आप

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नए संसद भवन को राष्ट्र को समर्पित कर चुके है। सोने का बना ‘सेंगोल’ नए परिसर में अपनी मौजूदगी का एहसास करा रहा है। इसे राजदंड भी कहा जा सकता है। जब देश 1947 में आज़ाद हुआ तो सत्ता का हस्तांतरण होना था।
वायसराय माउंटबेटन ने नेहरू से इस अवसर को खास बनाने की तैयारियों के बारे में पूछा था। इसे लेकर नेहरू सी राजगोपालाचारी के पास पहुंचे थे। उन्हें राजाजी के नाम से जाना जाता था। उन्हें भारतीय संस्कृति का गहरा ज्ञान था। उन्होंने तब सत्ता हस्तांतरण के लिए चोल मॉडल का पालन करने की राय दी थी।
राजाजी ने सेंगोल बनाने में मदद के लिए तंजावुर स्थित मठ, थिरुववदुथुराई अधीनम से संपर्क किया। 5 फीट लंबी जटिल नक्काशीदार सोने की परत चढ़ा चांदी का राजदंड तैयार किया गया। इसके शीर्ष पर नंदी जो की धर्म प्रतीक हैं उन्हें रखा था।
भारत की स्वतंत्रता की पूर्वसंध्या पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को इसे सौंपा गया था। यदि यह कहा जा सकता कि यह दंड महाभारत के समय से है तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी या नहीं होनी चाहिए । एक राजा से दूसरे राजा को सत्ता के हस्तांतरण का यह पवित्र प्रतीक था। हालांकि, बाद में पूरी तस्वीर बदल दी गई। इसे नेहरू को मिली स्वर्ण छड़ी में तब्दील कर दिया गया।1947 में जिस भारत का जन्म हुआ, वह हर तरह से हिंदू राष्ट्र था। नेहरू भी हिन्दू राष्ट्र के साथ गए थे। लेकिन बाद में देश के जन्मजात ‘हिंदूपन’ को भटका दिया गया। प्रगतिशील-वामपंथियों के साथ मिलकर ऐसा किया गया। ‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट’ में डॉमिनिक लैपियर और लैरी कॉलिंस तक ने स्वतंत्रता पर हिंदू मूड के उदय के बारे में साफ लिखा है । धर्मनिरपेक्ष राज्य के नाम पर इसकी पवित्र प्रकृति पर हमला किया गया। इस्तेमाल करने के बजाय इसे प्रयागराज के म्यूजियम में डंप कर दिया गया। अब इसे पवित्र गंगा जल से शुद्ध कर नई संसद में अध्यक्ष की सीट के बगल में स्थापित किया गया हैं । सेंगोल की खोज एक तरह से सभ्यतागत भारत की पुनर्खोज को दिखाती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि इसे ‘साइंटिक टेम्पर’ के नाम पर जानबूझकर हाशिये पर धकेला गया था। कई बातों से स्पष्ट होता है आजाद भारत हिंदू राष्ट्र के रूप में उभर रहा था। लेकिन, रास्ते को बदल दिया गया।
1950 में अपनी पुस्तक ‘बेट्रेअल इन इंडिया’ में जर्नलिस्ट डीएफ कराका ने लिखा है कि दिल्ली में उत्सव का मूड था। अचानक ‘धार्मिक भावनाएं’ हिलोरे मारने लगी थीं। यह हिंदू भावना का उदय था। इसे लेखक ने नेहरूवादियों की तर्ज पर ‘अंधविश्वासी’ कहा था। टाइम पत्रिका ने अपनी रिपोर्ट में कहा था- ‘जैसे-जैसे वह महान दिन निकट आया, भारतीयों ने अपने देवी-देवताओं को धन्यवाद दिया। प्रार्थनाओं, कविताओं, भजनों और गीतों के साथ वे खुशियों में डूबे थे।’ मंदिरों में ज्यादा नहीं जाने वाले नेहरू भी पुजारियों का आशीर्वाद लेते दिखे। इस धार्मिक उत्साह के आगे पंडित नेहरू झुक गए थे। कराका आगे लिखते हैं कि शाम को पुजारी इन धार्मिक जुलूसों के आगे-आगे चले। वे राजदंड, तंजौर से लाए पवित्र जल और चावल ले गए। उन्होंने अपने उपहार प्रधानमंत्री के चरणों में रखे। नेहरू के माथे पर भस्म लगाई। पुजारियों ने उन्हें अपना आशीर्वाद दिया।
बीआर आंबेडकर के लेखन और भाषणों के बारे में 1979 में महाराष्ट्र शिक्षा विभाग की ओर से प्रकाशित पुस्तक में उल्लेख है- ‘क्या प्रधानमंत्री नेहरू 15 अगस्त, 1947 को बनारस के ब्राह्मणों की ओर से किए गए यज्ञ में नहीं बैठे थे? क्या एक ब्राह्मण के स्वतंत्र और स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बनने की घटना का जश्न मनाने के लिए उन्होंने राजदंड को धारण करने के साथ गंगा जल को नहीं पीया?’ बाबासाहेब ने भारतीय राज्यों के भाषाई पुनर्गठन के संदर्भ में यह बात कही थी। इस पुस्तक के अध्याय 5 के पेज 149 पर सेंगोल का जिक्र आया है।