फिल्म सूरज पे मंगल भारी अभिनेता मनोज बाजपेयी के करियर का टर्निंग प्वाइंट

फिल्म ‘सूरज पे मंगल भारी’ अभिनेता मनोज बाजपेयी के करियर का टर्निंग प्वाइंट है। वैसा ही टर्निंग प्वाइंट जैसा अमिताभ बच्चन के करियर में ‘हम किसी से कम नहीं’ थी। ऐश्वर्या राय इस फिल्म में अमिताभ बच्चन की छोटी बहन बनी थीं और फिल्म के दोनों हीरो संजय दत्त और अजय देवगन के किरदार सदी के महानायक रहे सितारे के किरदार की बहन से प्यार करते हैं। हीरोइन जिस कलाकार की बहन बनी हो, फिल्म में वो हीरो तो हो ही नहीं सकता लिहाजा तय पाया जाता है कि फिल्म ‘सूरज पे मंगल भारी’ के हीरो दिलजीत दोसांझ हैं। उनका अपना एक चलता फिरता बैक ऑफिस भी है। कोई 25 साल पहले के बंबई में चलती फिल्म ‘सूरज पे मंगल भारी’ की कहानी में झोल कई हैं। उत्तर भारतीयों को लेकर मराठी मानुसों के मन में बनती रहने वाली भावनाएं यहां उबाल लेती ही हैं, साथ ही दिक्कत यहां ये भी है कि मोबाइल के आगमन के ठीक पहले के हिंदुस्तान की ये फिल्म सही झांकी नहीं खींच पाती। कहानी शादियों से पहले दूल्हों की जन्मकुंडली निकालने वाले एक जासूस और इस जासूस के चलते शादियों से लगातार हाथ धो रहे एक ऐसे युवा की अदावत की है, जिसके लिए शादी करना राष्ट्रीय मिशन जैसा हो गया है। जासूस को पता ही नहीं कि उसके अपने घर में क्या गुल खिल चुका है और इस गमले में पानी कौन डाल रहा है।
फिल्म ‘सूरज पे मंगल भारी’ जिस माहौल में रिलीज हुई फिल्म है, उस माहौल में इससे थोड़ा बेहतर कॉमेडी फिल्म होने की उम्मीद थी। मनोज बाजपेयी इसके पहले भी कई बार कॉमेडी में हाथ आजमा चुके हैं, लेकिन हास्य के लिए चेहरे पर भोलापन पहली शर्त है और मनोज बाजपेयी ने इतनी दुनिया देख ली है कि वह बहुत चाहते हैं तो भी बेचारे हंसने के मामले में 60 परसेंट से आगे नहीं बढ़ पाते हैं। इसके ठीक उलट दिलजीत दोसांझ कुछ न बोलें तो भी हंसी आने लगती है। मनुज शर्मा इस फिल्म का असली आइटम हैं। तमाम चुटकुले, कहकहे उठाकर अभिषेक शर्मा ने एक ऐसी फिल्म का ताना बाना गढ़ा है जो बतौर निर्देशक उनका किसी तरह का विकास होते नहीं दिखाती। फातिमा सना शेख को ऐसे किरदार करने की जरूरत क्यों हैं, वही जाने। फिल्म में काबिल कलाकारों अन्नू कपूर, सीमा पाहवा, मनोज पाहवा ने भी अपनी तरफ से पूरी मेहनत की है, फिल्म को संभाले रखने की।
फिल्म ‘सूरज पे मंगल भारी’ जिस दौर की कहानी कहती फिल्म है, उस दौर को परदे पर री-क्रिएट करने में फिल्म का कला निर्देशन विभाग कामयाब नहीं हो पाया है। फिल्म की कॉस्ट्यूम आदि भी ऐसी नहीं है कि फिल्म में अलग से कोई रंग दिख पाते हों। अंशुमान महाले के पास सिनेमैटोग्राफी डिपार्टमेंट में जहां जहां मौका मिला, उन्होंने आउटडोर के जरिए किरदारों को जीवंत करने की कोशिश की है, लेकिन मामला इनडोर होते ही नीरस लगने लगता है। रामेश्वर भगत के पास वीडियो संपादन में कुछ खास चुनौती रही नहीं, उन्होंने पटकथा के हिसाब से फिल्म एडिट कर दी है। फिल्म का संगीत पक्ष भी काफी कमजोर है। इस तरह की कॉमेडी फिल्मों का संगीत एक किरदार की तरह कहानी में सांसें लेता है लेकिन ‘सूरज पे मंगल भारी’ का ये ग्रह भी कमजोर ही रहा।