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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने धर्मांतरण विरोधी कानून पर उत्तर प्रदेश सरकार से मांगा जवाब
प्रयागराज| इलाहाबाद उच्च न्यायालय (एचसी) ने सोमवार को उत्तर प्रदेश सरकार से संशोधित धर्मांतरण विरोधी कानून के खिलाफ एक याचिका पर सुनवाई करते हुए तीन सप्ताह के भीतर अपना जवाब दाखिल करने को कहा। याचिका में धर्मांतरण विरोधी कानून को “संवैधानिक विरोधी और अनावश्यक” बताया गया है।याचिका में कहा गया है कि कानून भारत के संविधान की मूल भावना के खिलाफ है और इस कानून का राजनीतिक रूप से “दुरुपयोग” किया जा सकता है।
यह जनहित याचिका सामाजिक कार्यकर्ता आनंद मालवीय ने दायर की थी। कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मुनीश्वर नाथ भंडारी की अगुवाई वाली पीठ ने सोमवार को याचिका को अन्य लंबित याचिकाओं के साथ टैग किया और इसे तीन सप्ताह के बाद के लिए सूचीबद्ध कर दिया। मामले की अगली सुनवाई 5 अक्टूबर को निर्धारित की गई है।
धर्मांतरण कानून के खिलाफ पहले ही दो जनहित याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। नई याचिका समेत सभी याचिकाओं पर अब अगली सुनवाई में सुनवाई होने की उम्मीद है।
इस दौरान मालवीय ने कहा कि कानून, अनिवार्य रूप से, वर्तमान संवैधानिक स्थिति को नकारने का प्रयास करता है, और विभिन्न धर्मों से संबंधित व्यक्तियों को शादी करने से पहले राज्य से ‘अनुमति’ लेने के लिए मजबूर करता है। याचिका में कहा गया है कि यह अधिनियम सांप्रदायिकता की आग को भड़काने का एक छोटा-सा प्रच्छन्न प्रयास है, और समाज को जातीय और धार्मिक आधार पर विभाजित करने का प्रयास है।
याचिकाकर्ता ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि अंतर-धार्मिक विवाह के मामले सामने आने के बाद कानपुर में एक विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया गया, लेकिन कोई बड़े पैमाने पर साजिश नहीं मिली।
एसआईटी को ‘लव जिहाद’ की कोई बड़े पैमाने पर साजिश नहीं मिली। विडंबना यह है कि राजपत्रित के रूप में अधिनियमित फुटनोट टेक्स्ट में अध्यादेश को ‘लव जिहाद’ के रूप में संदर्भित किया गया है। यह रिकॉर्ड की बात है कि एसआईटी जांच नहीं हुई इस बात का कोई ठोस सबूत ढूंढे कि आरोपी ने साजिश के तहत संगठित तरीके से काम किया है।