साथ होकर भी साथ नहीं

अक्सर ऐसा होता है कि वक़्त के साथ-साथ कई रिश्तों में नीरसता आने लगती है और इसकी सबसे बड़ी वज़ह रिश्तों को समुचित वक़्त और अहमियत न देना होता है। शुरुआत में जो प्रेम और अपनापन होता है वो धीरे-धीरे बेरुखी में बदलने लगता है क्योंकि लोग आसानी से जुड़े हुए रिश्तों की क़द्र करना भूलने लगते हैं। शायद उन्हें लगता है कि अब तो रिश्ता तो जुड़ ही गया है तो ये कहीं दूर तो जाने वाला है नहीं तो अपना ध्यान इस पर न देकर वो अपनी प्राथमिकताएँ किसी अन्य को बनाने लगते हैं और यहीं से शुरू होता है दूरियों का सिलसिला जिसे यदि समय रहते प्रेम और वक़्त से न भरा जाये तो वो अंततः टूट ही जाता है। फिर दूर जाने के बाद समझ आती है उन रिश्तों कि अहमियत और ये भी कि सदा से प्राथमिकता तो ये ही थी बस समझ का फेर होता है इसलिए ध्यान नहीं जाता है इस ओर। मेरी इन पंक्तियों को पढ़कर आपको यही झलक मिलेगी और ये सीख भी कि समय रहते अपने रिश्तों कि उलझनों को सुलझा कर उन्हें सहेज लेना चाहिए ताकि प्रेम का गुलशन सदा ही महकता रहे:-
साथ होकर भी तुम,
लगते हो अब साथ नहीं,
क्या बाकी रह गया,
तुझमें कुछ एहसास नहीं?
तेरी मौजूदगी से,
हृदय में स्पंदन,
क्या सिर्फ मुझे होता है,
ये तेरे साथ नहीं?
आखिर वज़ह क्या है,
इस नजरअंदाजी की,
आखिर क्यों रह गयी,
अब पहले वाली बात नहीं?
क्यों नज़दीकियों में भी अब,
दूरियाँ ही नज़र आती हैं,
क्यों नसीब में अब होती,
पहले जैसी मुलाकात नहीं?
पहले तो ख्यालों में भी,
तुम्हें मेरी खुशियाँ प्यारी थीं,
तो अब क्यों दिखती तुम्हें,
मेरी नैनों की बरसात नहीं?
अगर कोई गिले-शिकवें हैं,
तो मुझसे खुलकर कहो तुम,
क्योंकि तेरी बेरुखी को सहना,
मुझे होता अब बर्दाश्त नहीं?
अभी भी वक़्त है पास हमारे,
इन दूरियों का मिटाने का,
चलो फिर से संवाद करें,
चलो फिर से करते हैं शुरुआत नयी।
***********************
-----(Copyright@भावना मौर्य "तरंगिणी")----
मेरी पिछली रचना आप इस लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं:-