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अधूरी नज़्म

अधूरी नज़्म

अधूरी नज़्म, अधूरा फ़साना हो तुम,
ओ जान-ए-जां मेरा गुजरा ज़माना हो तुम;
तुझ से मेरी वो अधूरी मोहब्बत भी,
पूरी ही थी हर मायने, हर ख्यालात में;
सच कहता हूँ मैं, आज भी मेरे लिए,
मेरा वही इश्क़, सूफियाना हो तुम;
हाँ, माना नहीं चल सके हम साथ में,
क्योंकि इस ज़माने को ये मंज़ूर न था,
पर जो बीता था तुम संग, बेपरवाह, बेख़ौफ़, 
वही खुशनुमा सा, मेरा वक्त पुराना हो तुम;
बहुत ग़ज़लें बुनी, बहुत शायरी लिखी मैंने,
पर मेरे अधूरी नज़्मों का, नज़राना हो तुम, 
गीतों के सागर में, बहुत डुबकियाँ लगायी मैंने,
पर जिसने सुकूँ बख्शा, वही मीठा तराना हो तुम।
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(Copyright@भावना मौर्य "तरंगिणी")

नोट: मेरी पिछली रचना आप इस लिंक के माध्यम से पढ़ सकते हैं-