तेरी आदतें

तेरी जुल्म-ओ-सितम सहने की आदत,तेरे कुछ भी नहीं कहने की आदत,बहुत दर्द देते हैं तुझे भी, मुझे भी,तेरे यूँ ही बेवज़ह चुप रहने की आदत;अगर इश्क़ है तो इज़हार कर तू,कुछ नहीं है पसंद तो इनकार कर तू,दर्द को बेआवाज़ क्यों सहती हो,अपने विरोधियों का प्रतिकार कर तू,मैं चलता रहूँगा तेरे संग साये की तरह,पर नहीं पसंद तेरी गुनाह सहने की आदत;कुछ समझ कर भी नासमझ बनते हैं, औरकुछ को खामोशियाँ समझ आती नहीं हैं,इसलिए छोड़ दिया करो कभी-कभी,अपने भावों को मन में रखने की आदत;तेरी खुशियों में ही आशियाना है मेरा भी,मुझे प्यारी लगती है तेरी, मेरे दिल की-धड़कन बनकर मुझमें रहने की आदत;हम-तुम एक दूजे की मन और आत्मा बनें,अपनाकर जीवन सागर में संग बहने की आदत,तेरे सब दर्द समेट लूँगा मैं हँसतें हुए,बस तू डाल ले बेपरवाह हँसने की आदत।*****
तेरी जुल्म-ओ-सितम सहने की आदत,
तेरे कुछ भी नहीं कहने की आदत,
बहुत दर्द देते हैं तुझे भी, मुझे भी,
तेरे यूँ ही बेवज़ह चुप रहने की आदत;
अगर इश्क़ है तो इज़हार कर तू,
कुछ नहीं है पसंद तो इनकार कर तू,
(Copyright@भावना मौर्य "तरंगिणी")
नोट: मेरी पिछली रचना आप इस लिंक के माध्यम से पढ़ सकते हैं-