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राधा-कृष्ण (एक अपरिभाषित प्रेम)

मेरे नेत्रों में अपनी छवि देखकर भी,
क्या तुम्हारे प्रश्न अनुत्तरित हैं राधे…?
क्या मेरे प्रेम को तुम्हें शब्दों में,
बुनकर सुनाने की ज़रूरत है..?
तुम्हारे अस्तित्व ने ही तो
‘कृष्ण’ को जीवित रखा हुआ है,
अन्यथा मैं तो ‘गोविन्द’, ‘वासुदेव’,
‘नंदगोपाल’, ‘देवकीनंदन’ और न जाने
किन-किन नामों से पुकारा जाता हूँ;
परन्तु जब भी ‘राधा’ का नाम आता है,
तो ‘कृष्ण’ स्वतः ही जुड़ जाता हैं;
वास्तव में, हमारा न मिलना ही,
हमारे मिलन को सार्थक करता है,
मिलने वालों को कब याद किया है संसार ने?
‘तुम’ और ‘मैं’ भी तो प्रेम की एक अपरिभाषित –
गाथा को लिखने ही इस संसार में आये हैं;
इसलिए अपने मन को विचलित नहीं,
मेरे चित्त में मिश्रित करो,
तब ही तुम्हें अपने चेतन-अवचेतन दोनों ही मन में
‘हमारी’ छवि स्पष्ट दिखाई देगी;
तुम्हारा निवास तो सदा से ही मेरे हृदय में है,
जहाँ मेरे धड़कनों की ध्वनि भी,
तुमसे ही होकर निकलती है,
तुम हो, तो ही मैं हूँ… इसीलिए तो संसार भी हमें,
‘कृष्ण-राधा’ नहीं ‘राधा-कृष्ण’ से पुकारता है।
☆☆☆☆☆☆
(Copyright @भावना मौर्य “तरंगिणी”)

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