मनोरंजनकवितायें और कहानियाँ

लघु कथा- हाँ मैं हूँ संस्कारी, पर इतनी भी नहीं

हाँ मैं हूँ संस्कारी, पर इतनी भी नहीं

‘शालू…शालू..’ (रवि ने गुस्से से उसे पुकारा)

‘जी बताइये’ रवि की आवाज सुनकर शालू हाल के तरफ आती है जहाँ पर रवि ऑफिस से वापस आकर अपनी माँ के साथ बैठा होता है।

‘ये मैं क्या सुन रहा हूँ?’ रवि ने गुस्से में शालू से पूछा।

शालू ने एक नज़र सविता जी (रवि की माँ) पर डाली और फिर रवि की ओर देख कर पूछा – ‘क्या सुना आपने?’

‘यही कि आज फिर तुमने मम्मी से झगड़ा किया और बदतमीजी से बात की?’ – रवि ने शालू के तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हुए पूछा।

शालू के चेहरे पर कोई भाव नहीं थे जैसे कि उसे पहले से ही ऐसी कोई उम्मीद थी।

तभी सविता जी ने अपनी आँखों से समुन्दर बहाते हुए कहा- ‘अरे रवि बेटा! ये तो है ही करमजली, मेरी एक भी बात नहीं सुनती है। तेरे नहीं रहने पर जब देखो तब मुझसे झगड़ा करती रहती है। न खाना समय पर बनाना, न घर का कोई भी काम समय से करती है। क्या सोचा था मैंने और कैसे बहु मिली है?’

शालू एक कामकाजी महिला है। शालू और रवि की शादी को अभी मुश्किल से छह महीने ही हुए हैं। वो बहुत ही परिपक्वता से घर और जॉब दोनों को सँभालने की कोशिश करती है। पर सविता जी एक पारम्परिक सास की तरह उससे घर को ज्यादा तवज्जो देने को कहती हैं जबकि शादी तय होने की पहली शर्त ही ये थी कि सविता अपनी जॉब नहीं छोड़ेगी। फिर किसी कामकाजी महिला के लिए भी दोनों को संभालना तभी मुमकिन होता है जब उसे घर से पूरा सहयोग मिले। रवि उसे अगर ज्यादा मदद नहीं कर पाता है तो उसके लिए परेशानियां भी खड़ी नहीं करता है। परन्तु अपनी माँ की हर बात को तवज्जो देना उसके संस्कारों का हिस्सा है। वो बात अलग है कि इस मामले में वो कभी-कभी उनकी गलत बात को भी मान लेता है और यहीं से शालू कि मुश्किलें बढ़नी शुरू हुई।

और ये अब लगभग रोज एक का ही हो गया है कि रवि के घर आते ही सविता जी शालू की बुराई शुरू कर देती हैं। शुरू-शुरू में शालू ने रवि को अपनी बात समझने की कोशिश की और एक माँ के लाडले के लिए ये पचा पाना थोड़ा मुश्किल था कि उसकी माँ की भी गलती हो सकती है इसीलिए धीरे-धीरे उसने इन सब बातों पर ध्यान देना ही बंद कर दिया। परन्तु किसी-किसी दिन बात ज्यादा बढ़ जाती थीं तो फिर उसका भी सब्र जवाब दे जाता था और सारा गुस्सा शालू पर ही निकलता था। शालू पलट कर जवाब तो नहीं देती थी पर उसने भी इसे इग्नोर करना शुरू कर दिया था। अब दिक्कत ये है कि अगर वो पलट कर जवाब देती है तो भी बुरी और नहीं देती है तो भी बुरी कि उन्हें इग्नोर किया जा रहा है।

ऐसे ही एक दिन शालू की एक अर्जेंट मीटिंग थीं उसके ऑफिस में और उसे रोज कि अपेक्षा काफी जल्दी निकलना था जिसके लिए उसने दो दिन पहले ही अपनी सास और रवि को बता दिया था। परन्तु ये सब जानते हुए भी उसकी सास ने अपने कुछ रिश्तेदारों को उसी दिन दोपहर में खाने पर बुला लिया और जैसे ही शालू निकलने वाली थी सविता जी ने उसे छुट्टी लगाने को कहा कि रिश्तेदारों को बुरा लगेगा अगर वो घर पर नहीं मिली तो। फिर कहने लगीं कि उन्होंने अपनी बहु के बने खाने की बहुत तारीफ की है उनसे और अब वे चाहती हैं कि शालू ही खाना बना कर उनकी दावत को सार्थक करे। शालू जो कि अपने ऑफिस में अपने अच्छे काम के लिए जानी जाती थी उसने बड़ी ही शालीनता से कहा –‘मम्मी जी, आज बहुत जरुरी मीटिंग है और बाहर से कुछ क्लाइंट्स आ रहे हैं। इस प्रोजेक्ट्स पर मैंने ही काम किया है तो किसी दूसरे को इतनी जल्दी समझा भी नहीं सकती हूँ। अगर आपने पहले से बताया होता तो शायद मैं छुट्टी लगा देती। मैं एक काम करती हूँ कुछ खाना बाहर से आर्डर कर देती हूँ या फिर पड़ोस में मिसेज मेहरा जी यहाँ जो कुक है उसे कह देती हूँ खाना बनाने के लिए और आज के हिसाब से चार्ज दे देंगे और कुछ मीठा जल्दी आकर मैं बना लुंगी।’ अब बस इतना कहना था कि सविता जी से रोना पीटना शुरू कर दिया जोकि रवि के कानों में भी पड़ा जो अभी-अभी नहा कर बाहर निकला था।

‘हाय, मेरे इतने भाग्य फूट गए कि अपनी ही बहु को कुछ कहने के लिए मुझे मुहरत देखना पड़े। अब रिश्तेदारों को भी बाहर का खाना खिलाएंगे क्या? ऐसा भी क्या बड़ा काम करती है कि एक दिन कि छुट्टी नहीं मिल सकती है? कितने मन से मैंने इसके बनाये खाने का गुणगान किया था उन लोगो से? अब उन्हें क्या मुँह दिखाउंगी। जाने कैसे संस्कार दिए हैं इसके माँ-बाप ने?’ सविता जी ने माहौल को भारी बनाते हुए कहा।

‘अरे शालू! ऐसा भी क्या अर्जेंट है ले लो यार आज की छुट्टी’ रवि ने भी अपनी माँ को रोते देख कर कहा।

अब शालू से भी रहा नहीं गया क्योंकि सविता जी गलत टाइम पर ये सब बातें लेकर बैठ गयीं थीं और अब जब बात माँ-बाप के संस्कारों की आ ही गयी है तो उसने भी अपनी जबान पर रोक नहीं लगायी- ‘बात एक दिन की छुट्टी की नहीं है माँ जी बल्कि अर्जेंट छुट्टी की है। और फ़िलहाल मेरे लिए अभी ये संभव नहीं है। और रही माँ-बाप के दिए संस्कारों की तो हाँ संस्कारी तो हूँ मैं। बस बात इतनी सी है कि उनके संस्कारों की परिभाषा को मैंने आज के नज़रिये से समझना और अपनाना शुरू किया जैसे कि- मेरे मम्मी-पापा ने मुझे समझाया था कि बेटा शादी के बाद वही तेरा घर होगा और वहाँ के लोग ही तेरे अपने होंगे तो उनके साथ ऐसे घुल-मिल जाना कि ये एहसास ही न हो कि तू किसी बाहर के घर से आयी है। जैसे वो हों वैसे ही बन जाना तुम। तो मैं भी बन गयी आप ही के जैसी। आखिर क्या करती, चलते-चलते उन्होंने ये भी बोला था कि पति के घर से जब आना हँसी-ख़ुशी आना वरना मत आना तो मेरे लिए तो यहीं रहना एक विकल्प है जिंदगी भर के लिए और यहाँ रहने के लिए आप लोगों सा बनना ही अनिवार्य है। पर देखिये न, अपने मम्मी-पापा के संस्कारो के कारण ही मैं पूरी तरह से आप लोगों जैसा नहीं बन पा रहीं हूँ। न आपकी गालियों और जली-कटी बातों का ज़वाब दे पाती हूँ, न ही आपकी बुराई के बदले बुराई कर पाती हूँ। दिन-रात खप कर भी कोशिश करती हूँ कि आपको मुझसे कम से कम शिकायत हो पर ऐसा हो ही नहीं पा रहा है। आप कभी मेरी मज़बूरी ही नहीं समझना चाहती हैं। पहले मुझे लगता था कि शायद आप रवि को लेकर इनसिक्योर है कि कही मेरे आने से आप दोनों के बीच दूरियाँ न आ जाये तो मैं इसका भी ख्याल रखती हूँ लेकिन आपको मेरी कोशिशें दिखती ही नहीं हैं या शायद आप देखना ही नहीं चाहती हैं। पूछिए अपने बेटे से कि कभी भी मैंने आपकी शिकायत की है रवि से? (कहते हुए शालू ने रवि की और देखा और रवि ने भी अब अपनी माँ की एक तरफ़ा शिकायत पर गौर किया)। अगर समय की कमी के कारण अब मुझे घर का ज्यादा कम करने में दिक्कत आ रही है तो मैं आप पर बोझ बढ़ाने के बजाये एक हेल्पर रखना चाहती हूँ ताकि आपको भी आराम मिले और मैं अपने परिवार को भी अपना समय दे पाऊँ पर आपको उसमें भी बुराई ही नज़र आती है।’

फिर रवि के तरफ मुड़ते हुए-

‘और रवि आप, अपनी माँ के साथ आप रहकर जब आप उनका ही व्यव्हार नहीं समझे तो मैं आपसे, मुझे समझने की उम्मीद कैसे कर सकती हूँ? वरना छह महीने कम नहीं होते। माना बच्चों का फ़र्ज़ होता है माँ-बाप के बातों को तवज्जो देना पर बच्चों को भी ध्यान देना चाहिए कि कही उनके गलत बातों को भी तवज्जो देते हुए वो उन्हीं के दिए संस्कारों का अपमान तो नहीं कर रहे हैं।’

फिर दोनों के तरफ देखते हुए- ‘हाँ, मैं हूँ संस्कारी पर इतनी भी नहीं कि- ‘आप मुझे करेला देकर खीर बनाने की उम्मीद करें” और मैं दिल से कह कह रही हूँ कि मैं ऐसे झगड़ों और बहस को मन से नहीं लगाती हूँ। इसलिए अगर आप शाम को मुझे नार्मल मिलेंगे तो मेरे व्यव्हार से भी आपको कुछ एहसास नहीं होगा कि आज या बीते छह महीनों में क्या बीता है।’

‘अब ये तो आप पर निर्भर करता है कि आप लोग मुझे कैसा बनाना चाहते हैं’ चलती हूँ, मीटिंग के लिए देर हो जाएगी।

ऐसा कहकर शालू ने अपनी सास के पैर छुए और बाहर निकल गयी। पीछे सविता जी और रवि सर लटकाये हुए खुद को शाम तक नार्मल करने की कोशिश करने लगे।

*********
(Copyright @भावना मौर्या ‘तरंगिणी)

Read more….. क्या-क्या चाहे ये मन?

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button