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कभी-कभी…मैं लिखती हूँ

कभी-कभी…मैं लिखती हूँ

कोई पढ़ता है मुझे, इसीलिए हर दिन,
मैं कुछ न कुछ नया लिखती हूँ,
लिखती हूँ कभी बेबाक मन की बातें,
तो कभी-कभी शर्म-ओ-हया लिखती हूँ,
सिर्फ वो ही समझ सकता है कि,
आखिर मैं क्यों और क्या लिखती हूँ,
क्योंकि जानता है वो कि सबके लिए,
आखिर कभी भी मैं कहाँ लिखती हूँ;

कभी लिखती हूँ जज़्बातों भरी पहेलियाँ,
तो कभी उससे इल्तिज़ा लिखती हूँ,
कभी लिखती हूँ ख्याल अपने मन के,
तो कभी उसके लिए दुआ लिखती हूँ,
कभी लिख देती हूँ उसे झरोखा दिल का,
कभी उसे अपना सारा जहाँ लिखती हूँ,
कभी लिखती हूँ उसे जिम्मेदारियों की हस्ती,
तो कभी-कभी उसे बहुत बेपरवाह लिखती हूँ;

लिख देती हूँ कभी-कभी उसे अपनी जमीं मैं,
तो कभी उसे अपना आसमां लिखती हूँ,
कभी लिखती हूँ खुद को उसकी ख्वाहिश,
तो कभी-कभी उसे अपना अरमां लिखती हूँ,
कभी देती हूँ उसे उपमा मैं मौन जलधि की,
तो कभी-कभी उसे मैं तूफां लिखती हूँ,
कभी उसे अपनी मंज़िल लिख देती हूँ मैं,
तो कभी-कभी सिर्फ एक कारवां लिखती हूँ;

भावहीन थी जब तक उससे न मुलाकात हुई थी,
इसीलिए उसे ही अपने लिखने की वज़ह लिखती हूँ,
कभी-कभी उसे जज़्बातों का सैलाब लिखती हूँ मैं,
तो कभी उसे मैं इश्क का दरिया लिखती हूँ,
इसीलिए लिखती हूँ कभी उसे अपनी मोहब्बत,
और कभी उसे मैं अपना हमनवां लिखती हूँ,
उसके लिए शायद मेरा वजूद कुछ भी न हो,
पर मैं तो हमेशा ही उसे, मेरी दुनिया लिखती हूँ।

—-(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी”)—

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*(जलधि= सागर)

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