कभी-कभी यूँ भी होता है
कभी-कभी यूँ भी होता है, कि-
जो सोचा नहीं वो हो जाता है,
जिसे सँभालते हैं हम बंद तिजोरियों में,
वो कीमती खजाना भी खो जाता है;
चाहे जैसे बचाये, कोई लाख खुद को,
इश्क जब होना होता है, वो हो जाता है,
न समाज की रवायतें रोक पाती हैं इसे,
न कोई भी इसके समक्ष खड़ा हो पाता है;
खामोशियाँ भी सूत्रधार बन जाती हैं तब,
जब निगाहों पर किसी का पहरा हो जाता है,
नींदों से लबरेज़ आँखें भी तब सोती नहीं हैं,
जब इश्क़ सागर से भी गहरा हो जाता है;
तब अक्सर लोग लिखते और मिटाते हैं,
अल्फाजों को बार-बार खाली पन्नों पर,
पर फिर भी कोरे कागज़ के साथ ही,
उनका घनी रात से सवेरा हो जाता है;
मिलन, विरह, विक्षोभ, विद्रोह आदि का,
मन पर असर बहुत ही गहरा हो जाता है,
बहुत सख्त दिखने और मुस्कुराने वाला भी,
तब पल-पल में बेवजह ही रो जाता है;
जब खुद के ही मन के घरौंदे में,
किसी गैर का बसेरा हो जाता है,
तब सारे प्रेम और शिकायतों का मालिक,
कोई खास, एक ही चेहरा हो जाता है;
कभी-कभी यूँ भी होता है, कि-
जो सोचा नहीं वो हो जाता है,
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—(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी”)—
(विक्षोभ= उद्वेलन उद्विग्नता, उथल-पुथल)