लावणी छंद

टेसू और पलाश खिले हैं, आज प्रकृति के उपवन में।
शीतल मंद समीर प्रवाहित, हर्ष भरे मन आँगन में।
मंजरियों की मादक खुशबू, मन मतवाला करती है।
तरुओं में पल्लव आने से, अनुपम छटा बिखरती है।
मस्त मगन भँवरे भी गुंजन, करते नित-प्रति कुंजन में।
टेसू और पलाश खिले हैं, आज प्रकृति के उपवन में।
कहते किंशुक ढाक इन्हें सब, तीन पात केवल होते।
उग आते हर ओर धरा पर, कहीं नहीं इनको बोते।
स्वाद बढ़ाते दोने पत्तल, बसे जीभ सँग हर मन में।
टेसू और पलाश खिले हैं, आज प्रकृति के उपवन में।
रंगों का मौसम फिर आया, बाल-वृद्ध हिय हुलस उठे।
प्रमुदित चित्त कराये मौसम, सबके तनमन विहँस उठे।
रँग जायेंगे रँग में फिर से, आस जगी यह जन-जन में।
टेसू और पलाश खिले हैं, आज प्रकृति के उपवन में।
करे प्रतीक्षा हर प्रेमी अब, रंगों के बादल छाएं।
मधुमासी सुरभित बयार में, प्रेम कोंपलें उग आएं।
प्रणयबद्ध होने को आतुर, प्रीत निखरती यौवन में।
टेसू और पलाश खिले हैं, आज प्रकृति के उपवन में।
रंग केसरी सभी दिशा में, स्वर्ग बनाये निर्जन में।
टेसू और पलाश खिले हैं, आज प्रकृति के उपवन में।
----प्रवीण त्रिपाठी( नोएडा)----