कविता - मेरे जाने का किसी को, जमाने में थोड़ा भी गम होता

मेरे जाने का किसी को, जमाने में थोड़ा भी गम होता,
पल दो पल समय का साथ उनका, हमारे भी साथ होता,
चोट दे जाता जमाना पहर-दो-पहर, क्या तुम्हे,
मेरी चोट के दर्द का थोड़ा भी तुम पर असर होता।
अन्जाने में भी किसी शख्स का दिल नहीं तोडा मैंने,
वक़्त मेहरबां था जब, फिर भी मुख नहीं मोडा मैंने,
शिकायत भी नहीं थी
, तनिक भी इस जमाने से मुझे,
न जाने क्यूँ, तोहमतों का किस्सा खत्म क्यों नहीं होता।
मेरे जाने का किसी को, जमाने में थोड़ा भी गम होता,
पल दो पल समय का साथ उनका, हमारे भी साथ होता।
खफा गर हो गयी, मुझसे मैं मुआफ़ी मांग लूगां तुमसे,
छीन लेना सब कुछ मेरा तुम, फिर मै सब्र कर लूंगा,
बनाऊंगा फिर भी तुम्हे अपना, निगाहें तर भी कर लूंगा,
चाहें करु कोशिश, प्रयत्न कितना भी इस ज़माने में,
ये नफरते एहसास का सिलसिला कभी कम नहीं होता,
चाहें कितना भी चाहू कोई भी शख्स अपना नहीं होता।
मेरे जाने का किसी को, जमाने में थोड़ा भी गम होता,
पल दो पल समय का साथ उनका, हमारे भी साथ होता।
-----अजय (H.O)------
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