कविता - बूढ़ी ना होना माँ

बूढ़ी ना माँ कभी
बूढ़ी ना होना।
तेरी बोली में वो मिठास
मन को ठंडक पहुँचाती है।
तेरी हल्की सी मुस्कान
हर दुःख को पार लगाती है।
तेरी सच्ची अनुभूति को
अहसास किए जाते हैं हम।
तेरे मन की कोमलता
माँ तुझको खास बनाती है।
क्यों सिमट कर रह गई हो?
घर की चार दिवारी में।
चेहरे की अनगिनत लकीरें,
चिंता को दर्शाती है।
खूब सुहाती है तुम पर, माँ
रंग बिरंगी साड़ियां।
लाल रंग की गोल बिंदिया,
माथे चार चांद लगाती है।
चंचल हिरनी सी लगती हो,
जब तुम घर से जाती हो।
ना खोना इस पहचान को माॅ ,
जो बचपन से देखी है।
दुःख सुख के हर पल में माँ
तुम साथ खड़ी हो जाती हो।
नयनों की अश्रुधारा से मन को,
अधीर कर जाती हो।
तेरी सच्ची ममता को
अहसास किये जाते हैं हम।
दुआओं के साए में
दिन रात जिए जाते हैं हम।
बूढ़ी ना होना माँ कभी,
बूढ़ी ना होना।
---डा.बंदना जैन(कोटा,राजस्थान)---
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