कविता - एक साँझ और ढल गई
Medhaj News
22 Jul 20 , 16:14:30
Special Story
Viewed : 4948 Times

चौपाल उठी रमई की
खैनी झारे कका नहीं
लौट पडे़ शहरी बाबू
जेब धरे इक टका नहीं
कितने रूठों को मनाय
मिलता कोई दाम कहाँ ।
बिना काम मिले रुपैया
मूरख प्यारा चाम कहाँ
पाँव तले खिसकी धरती
दारू पीकर छका नहीं ।
रक्त पसीना एक हुआ
है गाँठ न अपने खोटी
भाग भाग से जोडे़ जो
कब जुरै जून दो रोटी
पीर चीर तर झाँक रही
चावल हाँडी पका नहीं ।
मौन मौन से कहता है
बरखा बर्फ अम्फाल तक
धुंँआ धुंँआ ये खाली पन
टिड्डियों के हठजाल तक
एक साँझ और ढल गई
स्वप्न झरे उर थका नहीं ।
----- डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी-------
मेरी पिछली कविता पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें----> गंगा की पावन धारा में
Like
23
0
23