कविता - स्वप्न यही
Medhaj News
24 Jul 20 , 15:10:06
Special Story
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1) गंगा की पावन धारा में
2) एक साँझ और ढल गई
पग-पग करना हमें उजाला,स्वप्न यही ।
मंत्र पूत हो, प्राण शिवाला, स्वप्न यही ।
मंदिर - मंदिर , राम विराजे,जाग उठो,
छंँट जाये अब,मन से जाला,स्वप्न यही ।
सब धर्मों का, मंत्र एक है, मान चलो,
भूखे को भर,पेट निवाला, स्वप्न यही ।
दर्द असीमित,बलिदानों की नीति छले
मिटे हनन की,रीति कराला,स्वप्न यही ।
मात-पिता की, सेवा करना, बोध रहे,
स्नेह शीश पर,रहे विशाला, स्वप्न यही ।
निराधार है, मद की दुनिया,भान करो,
खुले ज्ञान की,नित मधुशाला,स्वप्न यही ।
अनासक्ति हो, दर्प मान पर, शास्त्र कहें,
प्रेम हृदय पर, लगे न ताला, स्वप्न यही ।
-----------डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी-----------
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