आज का इंसान

आज का इंसान
उलझनों की कश्मकश में इंशा ऐसा उलझ गया,
जाने कब ‘आज’, ‘बीते हुए कल’ में बदल गया;
महत्वाकांछाओं की आँधी में, वो उड़ता चला गया,
पर दिखावे में अपनी वास्तविकता ही, खोता चला गया।
ज्यादा की चाहत ने, उसे सोने न दिया;
कुछ पाने की लालच ने, अपनों का होने न दिया;
आज में जीने की कला गया वो भूल;
समाज की खातिर अपनी खुशियों पर, खुद ही चुभा दिए उसने शूल।
पर उसी समाज में उसकी पहचान ने,
उसे अपने दुखों पर भी, खुलकर रोने न दिया।
मतलब की भूखी इस दुनिया में, हर कोई स्वार्थ का निवाला है,
कहीं रिश्तों की उलझनें हैं, तो कहीं मजबूरियों का जाला है;
अच्छे भविष्य की चाहत में उसका आज,
और कल (बीता हुआ कल) दोनो ही जल गया;
कल (आने वाला कल) बेहतर होगा,
इसकी सोच में इक- इक अनमोल पल निकल गया।
झूठी शान की खातिर वो खुद इतना बदल गया,
अपना आधार छोड़ काल्पनिकता में ढलता चला गया;
जीने को तो जी लेता है, हर कोई दुनिया में आने वाला;
पर खुश वही है, जो वक्त रहते संभल गया………
………. जो वक्त रहते संभल गया……।।
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—-(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी”)—