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अव्यक्त 

अव्यक्त 

मुझे लगता है ऐसा कि-
तुम सब समझते हो,
मेरे मन को, मेरी उलझन को,
मेरे हालातों को, मेरे ज़ज्बातों को,
मेरी मुस्कुराहटें, मेरी खामोशियाँ,
मुझसे भी ज्यादा तुम पढ़ सकते हो;

पर नहीं बया करते कभी-
अपने मन के भावों को, अपने प्रेम को,
अपने हृदय में उठते बहावों को;
उलझते रहते हो तुम भी अपने मन में,
भावनाओं के घुमावदार रास्तों में,
पर परिलक्षित करते हो मुझे सदा ही,
अपने मन के ठहरावों को;

शायद, तुम भी चाहते हो कि-
मैं भी तुम्हें पढ़ूँ और समझ लूँ स्वयं ही,
तुम्हारे अंतर्मन की पहेलियाँ, मस्तिष्क की उलझनें;
तुम्हारी अनकही बातें, तुम्हारे मनोभाव,
तुम्हारे बिना लफ्जों के ही बयां होते एहसास,
तुम चाहते हो कि सब पता हों मुझे बिन कहे ही;

तो हाँ, मुझे भी सब समझ आता है,
जो तुमसे नहीं कहा जाता है वो भी,
और जो कहते हो उसका छिपा हुआ भाव भी,
हाँ, पढ़ सकती हूँ मैं तुम्हारी आँखे,
तुम्हारे चेहरे के बदलते भाव और,
तुम्हारे माथे की बदलती रेखाओं को;
हाँ, मुझे महसूस होती हैं तुम्हारी-
खुशियाँ, तकलीफें, चाहतें और-
बिना किसी अपेक्षा के की गयी मोहब्बतें;

पर मुझे लगता है कि-
कभी-कभी व्यक्त कर देना चाहिए अपने भावों को,
उनसे, जिनकी साँसों पर आपकी साँसें निर्भर हैं,
कभी-कभी अथाह प्रेम होते हुए भी,
अव्यक्त रह जाना जीवन भर के लिए,
कभी न भर सकने वाला दुख दे जाता हैं;

आखिर क्या अर्थ हैं?
ऐसे अव्यक्त एहसासों का,
जब उसे ही न सुना पाए,
जिसके लिए वो महसूस होते हैं?
क्या कर सकोगे? गर किसी पल,
उसके न रहने कि खबर मिले,
और तम्हारा सारा प्रेम और जज़्बात,
तुम्हारे मन में ही जज़्ब रह जाये,
क्या जी सकोगे एक सामान्य जीवन?
शायद उसे खोकर जी भी लो,
पर उन अव्यक्त एहसासों के साथ,
जीवित रहना शायद मृत्यु के ही सामान होगा;

इसलिए …
कहो, रूठो, मनाओ, छुपाओ,
पर कभी-कभी अपने मन के प्रेम को,
उसके सामने तो लाओ, जो उसका हक़दार है,
नहीं पता, कब, कौन सा दिन, कौन सा पल आखिरी हो,
और तुम्हें कहने का फिर कोई अवसर ही न मिले।

“इसीलिए, अव्यक्त को व्यक्त कर दो कभी-कभी!!”
☆☆☆☆☆☆
—-(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी”)—

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