अनकहा इज़हार
बिना अल्फाजों के भी एहसास बोल जाते हैं कभी-कभी,
आलिम हैं वो लोग, जो इसे समझ जाते हैं कभी-कभी;
जब समझने लगे कोई किसी के अनकहे ज़ज्बातों को,
जब बिना इज़ाज़त ही दिल में घुसपैठ कर जाता है कोई,
तब अक्सर इश्क उन्हीं दिलों में ठहर जाता है कभी-कभी;
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समाज की रवायतों की परवाह भी होती है बहुत,
पर फिर भी दिल बगावत पर उतर आता है कभी-कभी;
अनजान बनते हुए भी परवाह करता है अपने प्रेम की,
और बाहर से ये दिल जितना ठहरा हुआ दिखता है,
अंदर से उतना ही तेज दौड़े जाता है कभी-कभी;
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दिल में क्या है? ये छिपाने की चाहे लाख कोशिशें हों,
पर शर्म से पलकें झुक जाना भी, सब कह जाता है कभी-कभी;
माना लबों से इश्क-ए-इज़हार को रोक सकते हैं लोग,
पर अक्सर किसी पर बेइन्तिहाँ एतबार करना भी,
अनकहा इकरार-ए-मोहब्बत कर जाता है कभी-कभी।
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—(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी”)—
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(आलिम= विद्वान, एतबार= विश्वास)