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उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा बालकृष्ण भट्ट, हजारी प्रसाद द्विवेदी, शिव सिंह ‘सरोज‘, नागार्जुन, विष्णु प्रभाकर एवं आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री स्मृति के अवसर पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा बालकृष्ण भट्ट, हजारी प्रसाद द्विवेदी, शिव सिंह ‘सरोज‘, नागार्जुन, विष्णु प्रभाकर एवं आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री स्मृति के शुभ अवसर पर मंगलवार 14 व 15 जून, 2023 को दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हिन्दी भवन के निराला सभागार लखनऊ में पूर्वाह्न 10.30 बजे से किया गया।

सम्माननीय अतिथि डॉ0 प्रेमशंकर त्रिपाठी, डॉ0 सुधीर प्रताप सिंह, डॉ0 ओंकारनाथ द्विवेदी का उत्तरीय द्वारा स्वागत डॉ0 अमिता दुबे, प्रधान सम्पादक उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा किया गया।

सुल्तानपुर से पधारे डॉ0 ओंकारनाथ द्विवेदी ने कहा कि विष्णु प्रभाकर का जीवन आर्थिक विषमताओं से भरा हुआ था। प्रभाकर ने अपनी साहित्यिक यात्रा काव्य से की थी। उनका व्यक्तित्व काफी प्रेरक था। ‘आवारा मसीहा‘ ने विष्णु प्रभाकर जी की विश्वस्तर पर पहचान दिलाई। वे महान नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार, बालरचनाकार, जीवनीकार, निबंधकार थे। उनकी प्रत्येक रचना अपनी पूर्णता को प्राप्त करती है।

वे अपने को मूलतः कहानीकार मानते थे। ‘अर्धनारीश्वर‘ उपन्यास में नारी के सम्पूर्ण चरित्र का चित्रण मिलता है। विष्णु प्रभाकर का पूरा कृतित्व नारी जीवन के उज्जवल पक्ष को परिभाषित करता है। विष्णु प्रभाकर ने अपनी रचनाओं में समाज की विसंगतियों को दूर करने का प्रयास किया। उनका मानना था कि मन एवं संस्कारों को सदैव परिमार्जित करने की आवश्यकता रहती है।

दिल्ली से पधारे डॉ0 सुधीर प्रताप सिंह ने कहा कि नागार्जुन ने प्रकृति प्रेम को आधार बनाकर अपनी काव्य रचनाएं की। वे एक राजनीतिक व्यंग्यकार के रूप में अधिक चर्चित रहे। उनकी रचनाओं में लोक संस्कृति के तत्व विद्यमान हैं। रामविलास शर्मा के शब्दों में ‘नागार्जुन जितने सचेत रूप से क्रांतिकारी थे उतने ही अचेत रूप से भी क्रांतिकारी थे।‘‘

वे अपनी कृतियों में जनगीतों का प्रयोग करते हुए ममतिक रूप से भावों को प्रकट करते हैं। वे पूंजीवादी व्यवस्था पर अपने काव्यों में करारा प्रहार करते हैं। उन्होंने समाज के उन पहलुओं को छुआ जिसे अन्य कवियों ने अपनी रचनाओं में प्रयोग नहीं किया। नागार्जुन ऐसे रचनाकार हैं जो स्वयं अपनी आलोचना अपनी रचनाओं में करते हैं। नागार्जुन की रचना ‘‘कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास‘‘ चर्चित रही है।

कोलकाता से पधारे डॉ0 प्रेमशंकर त्रिपाठी ने कहा कि आचार्य विष्णुकांत शास्त्री का व्यक्तित्व काफी सहज था। शास्त्री जी ने बाबा नागार्जुन के अनेक रोचक संस्मरणों को लिखा है। शास्त्री जी विद्वता के विरल व्यक्ति थे। उनकी आंखों से शुभाशीष की निर्झरणी सदैव बहती रहती थी। वे नागार्जुन की कविताओं का शास्त्री जी बड़े भाव के साथ पाठ करते थे।

शास्त्री पत्र लेखन के माध्यम से एक महान साहित्यकार बने रहे। वे अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक डायरी लेखन करते रहे। वे विनम्रता की सार्थक प्रतिमूर्ति थे। रिपोतार्ज लेखन में उन्होंने अपनी एक नयी पहचान बनायी। वे आन्दोलनकर्मी भी थे। वे संस्मरणात्मक प्रसंगों के माध्यम से एक योद्धा लेखन के रूप में सामने आते हैं। वे आलोचकों में भी अग्रणी रहे। उन्होेंने तुलसीदास, धर्मवीर भारती, अज्ञेय पर भी अपनी लेखनी चलायी। शास्त्री जी श्रीराम के सच्चे परभक्त थे। वे प्रखर हिन्दी प्रेमी थे। शास्त्री भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा को स्थापित करने के पक्षधर थे। उनकी कथनी और करनी में साम्य। शास्त्री जी गुनगुनाया करते थे- ‘‘ औरों के हैं जगत में स्वजन बन्धुधनधान, मेरे तो हैं एक ही सीता पति श्रीराम।‘‘

ओमप्रकाश मिश्र, कोलकाता द्वारा नागार्जुन की ‘उन्हे प्रमाण‘, कालिदास ‘सच-सच बतलाना, अकाल और उसके बाद की सस्वर गायन किया गया साथ ही आचार्य विष्णुकांत शास्त्री की चतुष्पदियों से प्रारम्भ करते हुए ‘तुमको क्या जादू आता है‘ आ गया है कौन सहसा, इस तरह चुपचाप‘ की मनमोहक प्रस्तुति हुई। ओमप्रकाश मिश्र द्वारा त्रिलोचन शास्त्री की ग़ज़ल ‘बिस्तरा है न चारपाई का भी गायन किया गया। तबले पर सुरंजीत राय व गिटार पर अप्रतिम मिश्र ने सहयोग किया।

डॉ0 अमिता दुबे, प्रधान सम्पादक, उ0प्र0 हिन्दी संस्थान ने कार्यक्रम का संचालन किया। इस संगोष्ठी में उपस्थित समस्त साहित्यकारों, विद्वत्तजनों एवं मीडिया कर्मियों का आभार व्यक्त किया।

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