अक्सर जब हम लोग बड़े हो जाते हैं अर्थात युवा और उसके पश्चात् वृद्धावस्था में पहुँचते हैं तब हमें अपने बचपन के वही दिन बहुत याद आते हैं जब हम जल्दी से बचपन को पीछे छोड़ कर बड़े होना चाहते थे। परन्तु असल में वही वक्त हमारे जीवन का स्वर्णिम क्षण होते हैं। उस वक़्त न तो हम पर जिम्मेदारियों का बोझ होता है नहीं ही किसी बात की चिंता। कभी-कभी हम प्रकृति के आंचल में उन पलों को तलाशने लगते हैं जब हम स्वयं को हर तरफ से बंधा हुआ महसूस करते हैं । ऐसा ही कुछ मैंने निम्न पंक्तियों में लिखने की चेष्टा की है:-
जाना चाहे ये मन, उन बादलों के पार;
जहाँ न हो जिम्मेदारियाँ, और न हों बंधनों की दीवार।
उड़ना चाहे ये मन, उन पंछियों की तरह;
जो घूम लेते हैं पूरी दुनिया, फ़िर भी नहीं होते हैं गुमराह।
बहना चाहे ये मन, जैसे उस नदिया की धार;
जिसके प्रवाह को रोकने की, सारी कोशिशें हो जाती हैं बेकार।
बसना चाहे ये मन, उन चाँद-तारों के बीच;
जिनकी बस देने की है आदत, न है लेने की कोई रीत।
बजना चाहे ये मन, उस संगीत की तरह;
जो कणोँ में गुंजित हों, भौंरों के गीत की तरह।
खिलना चाहे ये मन, उन सुन्दर पुष्पों की भाँति;
जिसकी महक से मिलता है सुकून और नेत्रों को असीम शांति।
रंगना चाहे ये मन, इन्द्रधनुष के रंगो के तरह;
ताकि जहाँ तक उठे ये निगाहें, चहुँ ओर बस प्रेम-रंग हो बिखरा।
बरसना चाहे ये मन, सावन के बरखा के समान;
जिसे देख के लगे, जैसे झूम रहा हो सारा आसमान।
गढ़ना चाहे ये मन, कोई कहानी कभी-कभी;
जिसमें शब्दों में फ़िर जी सकें, जिन्दगानी कभी-कभी।
छोड़ना चाहे ये मन, निशानी कभी कोई;
कि न भुला सके लोग ये कहकर कि ‘हाँ थी एक कोई’।
—(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी”)—
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