सबसे कीमती है क्या?

ढूँढने हम निकले कि- सबसे कीमती है क्या?
भटकते रहे पर नहीं कुछ मिला,
यूहीं चलते हुए फिर नज़र कहीं पड़ी;
पास जाकर देखा तो एक वृद्धा थी खड़ी।
महीनों से वह बीमार लग रही थी,
धन-दौलत से बिल्कुल मोहताज़ लग रही थी;
देख कर उसकी हालत जानने को उत्सुक हुआ,
पूछ बैठा कि माता जी तुम्हे क्या हुआ?
ये सुनते ही अश्रु उसके बहने लगे,
आधी दास्तां बिन बोले ही कहने लगे;
उसने अश्रु पोछे और मुझे कुछ बताने लगी,
अपनी हालातों की कहानी वो सुनाने लगी।
एक था वो समय जब घमंड था मेरे सर पर चढ़ा,
मैं समझती थी सबको तुच्छ और खुद को बड़ा;
धन-दौलत के दम पर थी मैं, जीवन जी रही,
बस कहती थी खुद की, किसी की सुनती नहीं।
मैं भी जीती रही समय भी बढ़ता रहा,
दौलत का घमंड सर पर चढ़ता रहा;
न पढ़ने की इच्छा थी, न काम करने की थी चाह,
मेरे लिए तो बस, पैसा ही था खुदा।
पागल थी मैं जो समझ न सकी,
मेरे पास था कुछ पैसे से कीमती भी;
जिसकी क़द्र मैंने कभी की ही नहीं थी,
और हमेशा खुदगर्ज़ जैसी ज़िन्दगी ही थी जी।
धन के हिस्सेदारों के डर से किसी को साथ न चलने दिया,
अपने अपनों को खुद से दूर मैंने ही किया;
जो सच्चे थे दिल से, दुखी होकर चले गए,
कुछ लोभी थे वो मेरे संग ही चलते रहे।
तब से उन्हीं को अपना हम समझते रहे,
धन-दौलत के दम पर परखते रहे;
एक दिन आयी बाढ़ और सब बह गया,
तब अपना है कौन ये पता मुझे चला।
सच्चे अपनों की कीमत, कभी समझी ही न थी,
कितनी ज़रूरी है शिक्षा, कभी क़द्र ही न की;
न लौटेगा ये समय, कभी सोचा ही नहीं,
बस इसीलिए आज घुट-घुट के जी रही।
इतना सुनते ही अश्रु मेरी आँखों से गिरने लगे,
अपने सारे प्रश्नों के उत्तर मुझे मिलने लगे;
मैं खुश था कि समय रहते मुझे समझ आ गया,
कि इतनी बड़ी दुनिया में सबसे कीमती है क्या??
सबसे कीमती हैं अपने जो साथ चल रहे,
सबसे कीमती है ये समय, जो न लौटेगा कभी;
सबसे कीमती है शिक्षा, जो साथ देगी हर घड़ी,
सबसे कीमती है ये शरीर जो स्वस्थ है अभी।
बस अश्रु पोछे मैंने और माता जी से कहा-
चलिए आपको एक छत दूँ दिला,
ये कह कर उन्हें उस वृद्धाश्रम ले गया,
जहाँ थी हर व्यवस्था और उनके जीने की कुछ वजह।
हाथ जोड़कर ईश्वर को नमन मैंने किया,
क्योंकि आज पता चला मुझे कि “सबसे कीमती है क्या??”
—-(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी)—–