अंत के इतने करीब आकर
पीछे जाने की चाह किसे है?
है अंत अगर ये ज़िन्दगी का,
तो फिर जीने की चाह किसे है?
है अंत अगर ये रिश्तों का,
तो उन्हें जबरन बाँधे रखने की चाह किसे है?
है इंतिहा अगर ये दर्द की भी,
तो सह लेंगे, अब आह किसे है?
कुछ लोगों को रास नहीं, कामयाबियाँ मेरी,
पर अब ऐसे लोगों की परवाह किसे है?
सब अपनी मर्जी के मालिक हैं,
मेरे हिसाब से चलने की सलाह किसे है?
दुनिया की भीड़ में सब पहले से ही गुम हैं,
फिर भी उलझे हैं वो कि करना गुमराह किसे है?
जिंदगी की दौड़ में सब मूक-बधिर से शामिल हैं,
पर जीवन की गहराइयों की सच में थाह किसे है?
कोई नहीं सोच रहा कि कुछ ठहराव भी जरुरी हैं,
पर ज्यादा पाने कि चाह में सुख-चैन की ठाह किसे है?
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—-(Copyright@ भावना मौर्य “तरंगिणी”)—-
(थाह: गंमीरता मापन/ गहराई मापन; ठाह:ठहरने की क्रिया या भाव/ ठिकाना)