क्यों है?

तेरे-मेरे दरम्यान,
ये सरहद सी क्यों है?
दिल की गहराई में पनपने वाला,
वो अप्रतिम सा एहसास बेहद क्यों है?

न तूने कभी मना किया,
न मुझे कोई इंकार है;
फिर हाल-ए-दिल बयां करने में,
न खुलते तेरे लब क्यों हैं?

मुझे दिखता है भावनाओं का,
सैलाब तेरी आँखों में,
फिर बाहर से बने,
तू इतना सख्त क्यों है?

चल मान लिया तुझमें,
एहसास नहीं मेरे लिए,
फिर मेरे दूर जाने पर;
बढ़े, तेरी नब्ज़ क्यों है?

न तूने कभी मना किया,
न मुझे कोई इंकार है;
फिर मन की बात कहने में,
इतना हर्ज़ क्यों है?

—-(Copyright@ भावना मौर्य “तरंगिणी”)—-

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