पिघलती यादों के साथ
पिघलती यादों के साथ,
उफनते जज़्बातों के साथ,
ज़िन्दगी के लम्हों को,
जीते रहे हैं हम;
खामोशियों से गुफ्तगू करके,
भीड़ की तन्हाइयों में,
बोलते हुए भी अधरों को,
सीते रहे हैं हम;
ख्वाहिशों को दबाते हुए,
ग़मों में भी मुस्कुराते हुए,
जीवन की इस मदिरा को,
पीते रहे हैं हम;
अपनों के लिए लड़ना सीखा,
हद से भी गुजरना सीखा,
रिश्तों को बांध के रखने वाले,
फीते रहे हैं हम;
पर रिश्तों के बदलते रंगों से,
सच में झूठ के दंगो से,
भान होता है मुझे कि-
नहीं अछूते रहे हैं हम;
याद नहीं मुझे कुछ ऐसा,
कि कहीं छाप छूटी हो मेरी,
या किसी के लिए कभी भी,
खास या चहेते रहे हैं हम।
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—-(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी”)—