किसी के ख्वाबों की ताबीर, भला मैं कैसे बनूँ,
जाने कितनी ही कमियाँ, मुझमें बेसुमार सी हैं;
शायद उसे मेरी, ज़िन्दादिली पसन्द आयी होगी,
पर मन से तबीयत अपनी, कुछ-कुछ बीमार सी है;
कहीं उसकी उम्मीदें, और ख़्वाब न बिखर जायें,
शायद इसीलिए हमारे बीच, दूरियों की दरकार सी है;
कोशिशें तो उसकी भी, कुछ कम नहीं समझाने की,
और अपनी इनकार की सूरत भी, कुछ इकरार सी है;
साथ रहना है मुश्किल, और दूरियों से भी परेशानी है,
अब तो रहती कैफियत हमारी, हमेशा बेक़रार सी है;
साथ जीने-मरने की चाहत, उधर भी और इधर भी,
पर दुनिया की रवायतें, बनकर खड़ी होती दीवार सी हैं;
कैसी है ये ज़िन्दगी,जिसके फैसले ही नहीं हैं हमारे,
अपनी होकर भी ये लगती, किसी और के उधार सी है;
किसी के ख्वाबों की ताबीर, भला मैं कैसे ही बनूँ,
जाने कितनी ही कमियाँ, मुझमें बेसुमार सी हैं,
☆☆☆☆☆☆
—(Copyright@भावना मौर्या “तरंगिणी”)—
Very nicely written
Thank you so much Ishan Ji :-))