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तुम हो ख्वाब जैसे

जाने क्यों तुम,
इतने खास से लगे?
कुछ जाने-पहचाने,
एहसास से लगे,
ख़ामोशी में भी,
लगे तुम बोलते हुए,
और दूर होकर भी,
बहुत पास से लगे,
जिसे मानने को,
मन करता है,
मुझे तुम उसी,
अटूट विश्वास से लगे,
कभी लगे दायरों में,
सिमटते हुये,
कभी असीमित फैले,
आकाश से लगे;
कभी चाँद के,
मद्धम रोशनी जैसे,
तो कभी सूरज के,
तेज प्रकाश से लगे,
कभी दिन के जगते,
अरमानों से लगे,
तो कभी रातों के,
हँसी ख़्वाब से लगे;
शायद तुम भी,
हो मेरे जैसे ही,
इसलिए मिलते अपने,
जज़्बात से लगे।
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—–(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी”)—-