तू पूछता है, कौन हूँ मैं?

तू पूछता है, कौन हूँ मैं?
शब्द हूँ या मौन हूँ मैं?
अंत हूँ या आगाज़ हूँ मैं?
खुला सच हूँ या कोई राज हूँ मैं?
है आसान नहीं मुझे जानना,
मेरे अस्तित्व को स्वीकारना-
मैं क्या हूँ, मैं कौन हूँ?
मैं शब्द हूँ या मौन हूँ?
चर हूँ, कि अचर हूँ मैं?
हूँ धरावासी या नभचर हूँ मैं?
जब तक मेरी उपस्थिति का,
भान तुझको होता है,
तू भूलकर अस्तित्व अपना,
मुझमें विलीन हो चुका होता है;
तब न याद रहता आदि तुझको,
न होती अंत की तुझे चाह है,
वर्तमान में जीना ही,
तेरी धमनियों को देता प्रवाह है;
तब सच बताना और राज रखना,
दोनों ही तुझे, आता नहीं है,
है क्या सही और क्या गलत?
तू अंतर समझ पाता नहीं है;
जो मन में हो, वो ही मिले,
बस होती यही है आरजू,
दुनिया से न होता, मतलब तुझे,
अपनों को भी, जाता है भूल तू;
या बिखर जाता है मुझसे,
या फिर संवर जाता है तू,
पर ये निश्चित है कि,
मेरे होने से बदल जाता है तू;
गैर लगने लगते हैं अपने,
और अपने लगते अंजान हैं,
सब जानें है मुझको फिर भी,
नहीं पाते मुझे पहचान हैं;
न व्यक्ति हूँ, न वस्तु हूँ मैं,
न मुक्त हूँ, न रिक्त हूँ मैं,
मिलने-बिछड़ने और न जाने,
कितने ही भावों से, सिक्त हूँ मैं;
न छू सकते हो मुझे तुम,
न नयनों से ही दृश्य हूँ मैं,
बस कर सको महसूस मुझे, क्योंकि-
केवल भावों में ही, होता व्यक्त हूँ मैं;
क्योंकि इश्क़ हूँ मैं, इश्क़ हूँ मैं, इश्क़ हूँ मैं;
कभी खतरनाक तो कभी खूबसूरत रिस्क हूँ मैं,
हाँ, इश्क हूँ मैं, इश्क़ हूँ मैं, इश्क़ हूँ मैं।
—-(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी”)—-