अतृप्त रहोगे तुम हमेशा
अतृप्त रहोगे तुम हमेशा
तुम इतना विचलित क्यों हो,
तुमसे मैंने कुछ माँगा तो नहीं,
शायद मेरी ईमानदारी का जवाब,
तुम ईमानदारी से न दे पाए,
शायद मेरी परवाह को,
सदा ही तुम्हारी बेपरवाही मिली,
शायद मेरी खामोशी को,
तुम मेरी हाँ मान बैठे,
शायद मेरे कोमल मन को,
तुम कोई ठोस पाषाण मान बैठे,
बस यही गलती हो गयी तुमसे,
कि तुम समझ ही नहीं पाए कि-
माँग के मिलने वाली चीजों की,
मुझे कभी चाह ही नहीं थी,
और किसी बेहिस के साथ रहना,
मुझे कभी मंजूर न था,
इसलिए आजाद कर दिया तुम्हें,
हर रिश्ते से, हर बंधन से,
हर वादे से और हर जिम्मेदारी से,
और मुबारक को तुम्हें ये आजादी;
लेकिन जानती हूँ मैं कि कभी-कभी,
इंसान को आजादी भी नहीं भाती है,
हर किसी को कोई न कोई,
ऐसा बंधन चाहिए ही होता है,
जिसमें अथाह प्रेम हो, विश्वास हो,
अपने सपनों को पूरा करने की आजादी हो,
और प्रेम की चारदीवारी हो,
जिसमें वो खुद को महफूज समझे;
पर अब तुम्हारे पास वो चारदीवारी भी नहीं है,
क्योंकि आजाद हो तुम,
लेकिन सोचो जब ठहराव चाहोगे,
तब कहाँ से पाओगे वो खोया हुआ विश्वास,
मन का शायद मिल भी जाये,
परन्तु आत्मा को कैसे तृप्त करोगे?
अतृप्त रहोगे तुम हमेशा, हमेशा।
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—–(Copyright@भावना मौर्य “तरंगिणी”)—-